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गिर॑स्त इन्द॒ ओज॑सा मर्मृ॒ज्यन्ते॑ अप॒स्युव॑: । याभि॒र्मदा॑य॒ शुम्भ॑से ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

giras ta inda ojasā marmṛjyante apasyuvaḥ | yābhir madāya śumbhase ||

पद पाठ

गिरः॑ । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । ओज॑सा । म॒र्मृ॒ज्यन्ते॑ । अ॒प॒स्युवः॑ । याभिः । मदा॑य । शुम्भ॑से ॥ ९.२.७

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:2» मन्त्र:7 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे परमैश्वर्य्यप्रद परमात्मन् ! (ते) आपके (ओजसा) प्रताप से (अपस्युवः) कर्म्मबोधक (गिरः) वाणीयें (मर्मृज्यन्ते) लोगों को शुद्ध करती हैं, (याभिः) जिनके द्वारा आप (मदाय) आनन्द प्रदान के लिये (शुम्भसे) विराजमान हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा अपने कर्म्मबोधक वेदवाक्यों से सदैव पुरुषों को सत्कर्म्मों में उद्बोधन करता है, जिससे वे ब्रह्मानन्दोपभोग के भागी बनें, जैसा कि अन्यत्र भी वेदवाक्यों में वर्णन किया है, “क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतस्मर यजु० ४०।१५।” “कुर्वन्नेवेह कर्म्माणि जिजीविषेच्छतसमाः यजु० ४०।२।” इत्यादि वाक्यों में कर्म्मयोग का वर्णन भली-भाँति पाया जाता है, उसी कर्म्मयोग का वर्णन इस मन्त्र में है। उपनिषदों में इसको इस प्रकार वर्णन किया है “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति कठ० ३।१४।”= उठो जागो अपने कर्तव्यों को समझकर अपना आचरण करो तथा अन्य लोगों को कर्तव्यपरायण बनाओ, यह भाव उपनिषत्कार ऋषियों ने भी उक्त वेदमन्त्रों से लिया है ॥ कई एक लोग यह कहते हैं कि वेदों में विधिवाद नहीं अर्थात् ऐसा करो ऐसा न करो, इस प्रकार विधि तथा निषेध के बोधक वेदवाक्य नहीं मिलते। उनको स्मरण रखना चाहिये कि जब वेद ने गिराओं का विशेषण “अपस्युवः” यह कर्मों का उद्बोधक दिया, फिर विधिवाद अर्थात् अनुज्ञा में क्या न्यूनता रह जाती है। विधि विधान अनुज्ञा आज्ञा ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। इस प्रकार वेदों ने शुभ कर्म्मों के करने का विधान सर्वत्र किया है। एवं निषेध के बोधक भी सहस्रशः वेदवाक्य पाए जाते हैं, जैसा कि “मा शिश्नदेवा अपि गुर्ऋतं नः। ऋग् ७।२१।५=” मूर्त्यादि चिह्नों के पुजारी मेरी सच्चाई को नहीं पाते। एवं “नैनमूर्ध्वन्न तिर्य्यञ्च न मध्ये परिजग्रभत्। यजु० ३१।१।” परमात्मा को किसी स्थान में कोई बन्द नहीं कर सकता। इत्यादि अनेक मन्त्र निषेधबोधक पाए जाते हैं। इस प्रकार वेद का विधि-निषेध द्वारा हित का शासक होना ही इसकी अपूर्वता है ॥७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे परमैश्वर्य्यप्रद परमात्मन् ! (ते) तव (ओजसा) प्रतापेन (अपस्युवः) कर्मबोधिकाः (गिरः) वाचः (मर्मृज्यन्ते) लोकान् पवित्रयन्ति (याभिः) याभिः त्वम् (मदाय) आनन्ददातुम् (शुम्भसे) विराजसे ॥७॥